योग साधना का लक्ष्य चित्त (मन) को एकाग्र करना और आत्मज्ञान की प्राप्ति है। लेकिन इस पथ पर कई बाधाएँ आती हैं, जिन्हें महर्षि पतंजलि ने "चित्त विक्षेप के अंतराय" के रूप में परिभाषित किया है। ये अंतराय साधना में मानसिक और शारीरिक अस्थिरता उत्पन्न करते हैं, जिससे साधक का मन केंद्रित नहीं रह पाता। चित्त विक्षेप का अर्थ है मन का भटकाव, जो व्यक्ति को ध्यान और योग अभ्यास से दूर कर देता है। पतंजलि के योगसूत्र में चित्त विक्षेप के नौ मुख्य कारणों का उल्लेख मिलता है, जैसे - व्याधि (शारीरिक और मानसिक रोग), स्त्यान (आलस्य), संशय (संदेह), प्रमाद (लापरवाही), आलस्य (सुस्ती), अविरति (इंद्रिय तृष्णा), भ्रांति दर्शन (भ्रम), अलब्धभूमिकत्व (प्राप्ति में असफलता), और अनवस्थितत्व (स्थिरता की कमी)। ये बाधाएँ साधक की प्रगति को रोकती हैं और आत्मसाक्षात्कार के मार्ग में रुकावट पैदा करती हैं। चित्त विक्षेप न केवल मानसिक अस्थिरता का कारण बनते हैं, बल्कि यह दुःख, निराशा, और शारीरिक अशांति भी उत्पन्न करते हैं। इसके साथ ही, अनियमित श्वास-प्रश्वास और बेचैनी जैसी समस्याएँ भी उत्पन्न होती हैं। पतंजलि ने इन अंतरायों को दूर करने के लिए समाधि पथ का अभ्यास, वैराग्य, स्वाध्याय और गुरु के मार्गदर्शन को महत्वपूर्ण बताया है। इन उपायों के माध्यम से साधक चित्त विक्षेप से मुक्ति पाकर ध्यान और आत्मज्ञान की ओर अग्रसर हो सकता है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार, योग साधना में आने वाले नौ प्रमुख अंतरायों में "व्याधि" (शारीरिक और मानसिक रोग) को प्रथम स्थान प्राप्त है। व्याधि का अर्थ है ऐसी स्थिति जो शरीर और मन को अस्वस्थ बना देती है, जिससे साधक के चित्त की एकाग्रता बाधित होती है। योग की प्रगति के लिए शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है, क्योंकि अस्वस्थ शरीर मन को अशांत और भटकाव की ओर ले जाता है। शारीरिक व्याधियों में बीमारियाँ, थकावट, और ऊर्जा की कमी शामिल हैं, जबकि मानसिक व्याधियाँ जैसे तनाव, चिंता, और अवसाद साधना में रुकावट उत्पन्न करती हैं। योग साधना में व्याधि को दूर करने के लिए योगानुशासन, सात्त्विक आहार, प्राणायाम, और ध्यान का अभ्यास अत्यंत महत्वपूर्ण है। पतंजलि का "योगानत्रय" – तप (अनुशासन), स्वाध्याय (आत्म-अध्ययन), और ईश्वर-प्रणिधान (समर्पण) – व्याधि का समाधान प्रस्तुत करता है। तप से शरीर मजबूत बनता है, स्वाध्याय से मानसिक स्पष्टता आती है, और ईश्वर-प्रणिधान से मन शांत और स्थिर होता है। इस प्रकार, व्याधि को दूर करके योग साधना में सफलता प्राप्त की जा सकती है।
स्त्यान, जिसे आलस्य या निष्क्रियता कहा जाता है, चित्त विक्षेप के नौ अंतरायों में से एक है, जो योग साधना के मार्ग में महत्वपूर्ण बाधा उत्पन्न करता है। यह स्थिति मानसिक और शारीरिक सुस्ती का प्रतीक है, जिसमें व्यक्ति ऊर्जा और प्रेरणा की कमी महसूस करता है। स्त्यान का प्रभाव साधक की एकाग्रता, नियमित अभ्यास, और आत्म-उन्नति के प्रयासों को बाधित करता है। आलस्य का मुख्य कारण अनुशासन की कमी, असंतुलित जीवनशैली, और मानसिक प्रेरणा का अभाव है। शारीरिक सुस्ती से साधक योगासन, प्राणायाम, और ध्यान में निरंतरता नहीं रख पाता, जबकि मानसिक सुस्ती उसे आत्मचिंतन और स्वाध्याय से दूर कर देती है। महर्षि पतंजलि के अनुसार, तप (अनुशासन), स्वाध्याय (आत्म-अध्ययन), और ईश्वर प्रणिधान (समर्पण) स्त्यान को दूर करने के प्रमुख उपाय हैं। नियमित अभ्यास, सकारात्मक सोच, और जीवन में स्पष्ट उद्देश्य स्थापित करके आलस्य से मुक्ति पाई जा सकती है। योग साधना में स्त्यान को दूर करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह न केवल साधक की प्रगति को रोकता है, बल्कि उसे चित्त की स्थिरता और आनंद से वंचित कर देता है।
संशय, या संदेह, महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित चित्त विक्षेप के नौ प्रमुख अंतरायों में से एक है। यह साधक के मन में उत्पन्न होने वाला असमंजस और अनिश्चितता है, जो योग मार्ग पर प्रगति में बाधा उत्पन्न करता है। संशय का मुख्य प्रभाव व्यक्ति की निर्णय-क्षमता, आत्मविश्वास, और साधना के प्रति समर्पण को कमजोर करना है। संशय का जन्म अज्ञान, अनुभव की कमी, या गलत जानकारी के कारण होता है। योग साधना में, यह गुरु, अभ्यास की विधियों, या आत्मज्ञान की प्रक्रिया पर विश्वास की कमी के रूप में प्रकट हो सकता है। यह स्थिति साधक को आध्यात्मिक मार्ग से भटकने और नियमितता तोड़ने की ओर प्रेरित करती है। संशय को दूर करने के लिए गुरु के प्रति श्रद्धा, आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन, और आत्मनिरीक्षण आवश्यक हैं। स्वाध्याय (आत्म-अध्ययन) और सत्संग (सज्जनों के साथ संगति) संशय को समाप्त करने में सहायक होते हैं। इसके अलावा, ध्यान और प्राणायाम का अभ्यास मन को स्थिरता और स्पष्टता प्रदान करता है। योग साधना में संशय को समझदारी और धैर्यपूर्वक दूर करना आवश्यक है, क्योंकि यह आत्मिक उन्नति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है। विश्वास और समर्पण के साथ, संशय पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
प्रमाद, जिसका अर्थ है लापरवाही या असावधानी, महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित चित्त विक्षेप के नौ प्रमुख अंतरायों में से एक है। यह वह स्थिति है जिसमें साधक योग साधना में अनुशासन और एकाग्रता की कमी अनुभव करता है। प्रमाद न केवल शारीरिक प्रयासों को बाधित करता है, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक प्रगति को भी धीमा कर देता है। प्रमाद का मुख्य कारण मन का भटकाव, आलस्य, और साधना के महत्व की अनदेखी है। जब साधक नियमित अभ्यास, ध्यान, या प्राणायाम में लापरवाही करता है, तो यह उसके योगिक मार्ग में बाधा उत्पन्न करता है। प्रमाद व्यक्ति को अपने लक्ष्य से दूर ले जाता है और आत्मिक उन्नति के मार्ग पर रुकावट पैदा करता है। प्रमाद को दूर करने के लिए नियमितता, अनुशासन, और आत्मनिष्ठा का पालन आवश्यक है। स्वाध्याय (आत्म-अध्ययन), सत्संग (सज्जनों का संग), और गुरु की शिक्षाओं के प्रति समर्पण प्रमाद को समाप्त करने में सहायक होते हैं। योग साधना में प्रमाद को त्यागना अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह साधक की ऊर्जा और समय को व्यर्थ करता है। ध्यान, अनुशासन, और दृढ़ संकल्प के माध्यम से प्रमाद पर विजय प्राप्त की जा सकती है, जिससे योगिक जीवन में संतुलन और सफलता सुनिश्चित होती है।
आलस्य, या सुस्ती, योग साधना में प्रमुख बाधक तत्वों में से एक है। यह व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक ऊर्जा स्तर को प्रभावित करने वाला एक नकारात्मक भाव है, जो उसे सक्रिय और अनुशासित जीवन शैली अपनाने से रोकता है। आलस्य चित्त की स्थिरता को बाधित करता है और साधक को योग मार्ग पर प्रगति करने से रोकता है। आलस्य का मुख्य कारण मानसिक उदासीनता, असंतुलित आहार, और अनुशासन की कमी है। यह स्थिति शारीरिक थकान, मानसिक अनिच्छा, और साधना के प्रति प्रेरणा के अभाव के रूप में प्रकट होती है। आलस्य न केवल साधक को योगासन, प्राणायाम, और ध्यान से दूर करता है, बल्कि उसकी आत्मिक उन्नति में भी बाधा उत्पन्न करता है। आलस्य से मुक्ति पाने के लिए नियमित दिनचर्या, सकारात्मक सोच, और प्रेरणादायक वातावरण की आवश्यकता होती है। महर्षि पतंजलि ने तप (अनुशासन), स्वाध्याय (आत्म-अध्ययन), और ईश्वर प्रणिधान (समर्पण) को आलस्य पर विजय पाने के उपाय बताया है। योग साधना में आलस्य को त्यागना आवश्यक है, क्योंकि यह व्यक्ति की ऊर्जा और मानसिक स्पष्टता को कमजोर करता है। दृढ़ संकल्प और अनुशासन के माध्यम से आलस्य को दूर कर चित्त की स्थिरता और संतोष प्राप्त किया जा सकता है।
अविरति, जिसका अर्थ है असीमित भोग या असंयम, योग साधना में प्रमुख बाधाओं में से एक है। यह व्यक्ति की इंद्रियों और मन को भौतिक सुख-सुविधाओं, इच्छाओं, और अनावश्यक भोग-विलास की ओर आकर्षित करता है। अविरति चित्त की स्थिरता और एकाग्रता को भंग करती है, जिससे साधक का योगिक मार्ग बाधित होता है। अविरति का मुख्य कारण अज्ञान (अविद्या) और इंद्रियों पर नियंत्रण की कमी है। व्यक्ति जब बाहरी वस्तुओं और अनुभवों में स्थायी सुख की खोज करता है, तो वह अपनी ऊर्जा और समय व्यर्थ करता है। यह स्थिति मन को चंचल बनाती है और साधक को आत्मिक प्रगति से दूर कर देती है। अविरति से मुक्ति पाने के लिए संयम (यम-नियम), स्वाध्याय (आत्म-अध्ययन), और ध्यान का अभ्यास आवश्यक है। महर्षि पतंजलि ने वैराग्य (असंलग्नता) और अभ्यास (नियमितता) को अविरति पर विजय पाने के प्रमुख साधन बताया है। योग साधना में अविरति को त्यागना अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह चित्त की शुद्धता और स्थिरता में बाधा उत्पन्न करती है। संयमित जीवनशैली और आत्मचिंतन के माध्यम से साधक अविरति से मुक्त होकर योग मार्ग पर स्थिरता प्राप्त कर सकता है।
भ्रांति दर्शन, जिसे False Perception कहा जाता है, महर्षि पतंजलि के अनुसार चित्त विक्षेप के नौ प्रमुख अंतरायों में से एक है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति अपने मानसिक और इंद्रिय ज्ञान के आधार पर वास्तविकता को सही ढंग से समझ नहीं पाता। भ्रांति दर्शन में व्यक्ति वस्तुओं, घटनाओं या परिस्थितियों को उनकी वास्तविकता से भिन्न रूप में देखता है, जिससे वह भ्रम और असत्य के मार्ग पर चलता है। भ्रांति दर्शन का मुख्य कारण अज्ञान (अविद्या) और भ्रमित मानसिकता है। जब साधक आत्म-ज्ञान या सत्य को पहचानने में असमर्थ होता है, तो वह भौतिक जगत को केवल अपनी इच्छाओं और भ्रमों के माध्यम से देखता है। यह स्थिति उसे योग साधना में संदेह, असमंजस, और मानसिक भ्रम की स्थिति में डाल देती है। भ्रांति दर्शन से मुक्ति के लिए आत्मज्ञान, गुरु के प्रति श्रद्धा, और ध्यान की आवश्यकता है। स्वाध्याय (आत्म-अध्ययन) और सत्य की खोज के माध्यम से भ्रांति को दूर किया जा सकता है। योग साधना में जब व्यक्ति अपने चित्त को शांत और स्पष्ट करता है, तब वह सत्य और भ्रम के बीच अंतर को समझ सकता है और आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचान सकता है।
अलब्धभूमिकत्व, जिसे "अवस्था की प्राप्ति में विफलता" कहा जाता है, महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित चित्त विक्षेप के नौ प्रमुख अंतरायों में से एक है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब साधक योग साधना के विभिन्न स्तरों और अवस्थाओं को प्राप्त करने में असमर्थ होता है। साधक निरंतर प्रयास करने के बावजूद भी प्रगति में रुकावट महसूस करता है और यह उसे आत्म-विश्वास की कमी और असंतोष का अनुभव कराता है। अलब्धभूमिकत्व का मुख्य कारण उचित साधना का अभाव, मानसिक या शारीरिक अनुशासन की कमी, और लक्ष्यों के प्रति स्पष्टता की अनदेखी है। जब साधक लक्ष्य की ओर अपने कदम बढ़ाने में असमर्थ होता है, तो उसे योग मार्ग पर निराशा का सामना करना पड़ता है। यह स्थिति साधना में विफलता की भावना को जन्म देती है, जो आगे की प्रगति को और कठिन बना देती है। अलब्धभूमिकत्व से मुक्ति पाने के लिए निरंतर अभ्यास, तप (अनुशासन), और एकाग्रता की आवश्यकता है। साधक को अपने उद्देश्य को स्पष्ट करना चाहिए और कठिनाइयों के बावजूद नियमितता और धैर्य के साथ साधना में लगे रहना चाहिए। योग में सफलता प्राप्त करने के लिए आत्म-विश्वास, सकारात्मक सोच और गुरु के मार्गदर्शन का पालन आवश्यक है।
अनवस्थितत्व, या अस्थिरता, महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित चित्त विक्षेप के प्रमुख अंतरायों में से एक है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब साधक का मन और चित्त स्थिर नहीं होते और वह निरंतर मानसिक उथल-पुथल और असंतुलन का सामना करता है। यह मानसिक अस्थिरता साधना में विफलता, लक्ष्य के प्रति भ्रम और आत्म-अनुशासन की कमी को जन्म देती है। अनवस्थितत्व का मुख्य कारण मानसिक असंतुलन, बाहरी प्रभावों से अत्यधिक प्रभावित होना, और साधना के प्रति अपर्याप्त समर्पण है। जब साधक के मन में निरंतर चंचलता और अनिश्चयता रहती है, तो वह अपनी साधना में गहरे ध्यान और आत्म-चिंतन की स्थिति में नहीं पहुंच पाता। इस स्थिति में साधक का चित्त स्थिर नहीं रहता, जिससे योग के उच्चतम स्तरों को प्राप्त करना कठिन हो जाता है। अनवस्थितत्व को दूर करने के लिए आत्म-निरीक्षण, नियमित अभ्यास, और ध्यान का महत्व है। मानसिक स्थिरता प्राप्त करने के लिए योग, प्राणायाम, और साधना की निरंतरता आवश्यक है। स्वाध्याय और गुरु की दिशा में समर्पण से साधक अपने चित्त को स्थिर कर सकता है, जिससे वह योग मार्ग पर सच्ची सफलता प्राप्त कर सके।
चित्त विक्षेप, जो कि मानसिक अशांति और चंचलता को दर्शाता है, का व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जब मन स्थिर नहीं होता और निरंतर विचलित रहता है, तो इसके परिणाम स्वरूप कई मानसिक, शारीरिक और आत्मिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। चित्त विक्षेप के परिणाम स्वरूप व्यक्ति न केवल अपनी साधना में विफल होता है, बल्कि उसकी व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। सबसे पहले, चित्त विक्षेप से मानसिक तनाव और चिंता उत्पन्न होती है। जब मन अपने विचारों में फंसा रहता है और किसी एक विषय पर केंद्रित नहीं हो पाता, तो यह मानसिक तनाव का कारण बनता है। निरंतर मानसिक उथल-पुथल के कारण व्यक्ति को तनाव, अवसाद और मानसिक थकान का सामना करना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप आत्म-संयम की कमी होती है, और व्यक्ति अपने कार्यों और निर्णयों में भ्रमित रहता है। चित्त विक्षेप से शारीरिक स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। मानसिक अशांति और चिंता के कारण शारीरिक प्रतिक्रियाएं जैसे सिरदर्द, नींद की कमी, और शरीर में तनाव उत्पन्न हो सकता है। जब मन में स्थिरता नहीं होती, तो शरीर भी उचित रूप से कार्य नहीं कर पाता। इससे शारीरिक बीमारी और कमजोरी का सामना करना पड़ सकता है, जैसे कि उच्च रक्तचाप, हार्मोनल असंतुलन, और पाचन संबंधित समस्याएं। अच्छी सोच और मानसिक स्पष्टता की कमी भी चित्त विक्षेप के परिणाम हैं। चंचल मन के कारण व्यक्ति अपने लक्ष्यों और उद्देश्यों के प्रति असमंजस में रहता है। उसे अपने कार्यों में दिशा और उद्देश्य की कमी महसूस होती है। इससे निर्णय लेने में कठिनाई होती है, और कार्यों में समय की बर्बादी होती है। व्यक्ति अक्सर भ्रमित रहता है और उसे सही निर्णय लेने में असमर्थता का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, चित्त विक्षेप आत्मिक प्रगति में भी रुकावट उत्पन्न करता है। योग और साधना का मुख्य उद्देश्य आत्म-ज्ञान और आत्मा से जुड़ाव होता है। जब चित्त विक्षेपित होता है, तो व्यक्ति ध्यान, साधना और आत्म-चिंतन की गहरी अवस्था में नहीं जा पाता। इससे उसकी आध्यात्मिक प्रगति रुक जाती है और वह आत्मा के सच्चे स्वरूप को नहीं समझ पाता। व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों पर भी चित्त विक्षेप का गहरा असर होता है। एक व्यक्ति जो मानसिक रूप से अशांत होता है, वह अपनी भावनाओं और विचारों को सही तरीके से व्यक्त नहीं कर पाता। इसके परिणामस्वरूप रिश्तों में तनाव और गलतफहमियां उत्पन्न होती हैं। मानसिक अशांति के कारण व्यक्ति अपनी प्रतिक्रियाओं में अस्थिरता दिखाता है, जिससे उसके परिवार, मित्रों और सहकर्मियों के साथ संबंधों में समस्या उत्पन्न हो सकती है। अंततः, चित्त विक्षेप व्यक्ति की सफलता और संतुलित जीवन में रुकावट डालता है। जब मन विक्षिप्त होता है, तो व्यक्ति अपने कार्यों में पूरी तरह से ध्यान नहीं दे पाता और उसे सफलता प्राप्त करने में कठिनाई होती है। चित्त विक्षेप के कारण व्यक्ति में आत्मविश्वास की कमी हो जाती है, और वह अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में असफल हो सकता है। इसके परिणामस्वरूप जीवन में निराशा और अवसाद का अनुभव होता है।
चित्त विक्षेप, योग शास्त्र में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो मानसिक विकारों, अशांति और अस्थिरता को दर्शाता है। यह वह स्थिति है जब मन निरंतर चंचल रहता है और सही दिशा में केंद्रित नहीं हो पाता। चित्त विक्षेप के कारण व्यक्ति मानसिक और शारीरिक रूप से अशांत हो जाता है, जिससे उसकी जीवनशैली पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। योग में चित्त विक्षेप से बचने के लिए कई उपाय सुझाए गए हैं, जिनका पालन करने से मन को शांति और स्थिरता मिलती है। एक प्रमुख उपाय है प्रणायाम, या श्वास नियंत्रण, जो मानसिक विक्षेप को नियंत्रित करने में सहायक है। जब हम श्वास पर नियंत्रण रखते हैं, तो मन भी नियंत्रित हो जाता है। गहरी और स्थिर श्वास से चित्त को शांति मिलती है, और शरीर-मन का संतुलन स्थापित होता है। प्राणायाम से केवल शारीरिक ताजगी ही नहीं, बल्कि मानसिक शांति भी प्राप्त होती है, जिससे विक्षिप्त मन को स्थिर किया जा सकता है। ध्यान एक अन्य प्रभावी उपाय है। ध्यान के माध्यम से मन को एकाग्र किया जाता है और इसके द्वारा चित्त विक्षेप को नियंत्रित किया जा सकता है। जब हम अपने मन को किसी एक बिंदु पर एकत्रित करते हैं, तो विक्षिप्त विचारों का प्रभाव कम हो जाता है और हम मानसिक शांति की स्थिति में प्रवेश करते हैं। नियमित ध्यान अभ्यास से मन की स्थिरता बढ़ती है, और व्यक्ति मानसिक संतुलन प्राप्त करता है। स्वाध्याय, यानी आत्म-अध्यान, भी एक महत्वपूर्ण उपाय है। इसमें व्यक्ति अपने भीतर की स्थिति का निरीक्षण करता है और अपने विचारों, भावनाओं और इच्छाओं को समझता है। जब हम अपनी मानसिक स्थिति को पहचानते हैं, तो हम उन विकारों को दूर करने में सक्षम होते हैं, जो चित्त विक्षेप का कारण बनते हैं। स्वाध्याय से मानसिक स्पष्टता मिलती है और व्यक्ति अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। साधना में निरंतरता भी चित्त विक्षेप को कम करने का एक महत्वपूर्ण उपाय है। जब हम नियमित रूप से योग, प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास करते हैं, तो हमारा मन स्थिर और संतुलित रहता है। निरंतर अभ्यास से मानसिक विक्षेप कम होते हैं और व्यक्ति आत्म-ज्ञान की ओर अग्रसर होता है। नियमितता से साधक का आत्मविश्वास भी बढ़ता है, जिससे मानसिक अशांति को दूर किया जा सकता है। वैराग्य, यानी अनासक्ति, भी चित्त विक्षेप को दूर करने के लिए आवश्यक है। जब हम बाहरी वस्तुओं और परिस्थितियों से अपने आप को अत्यधिक जोड़ते हैं, तो हमारा मन चंचल हो जाता है और विक्षिप्त हो जाता है। वैराग्य का अभ्यास करके हम अपने इच्छाओं और जुड़ावों से मुक्त हो सकते हैं, जिससे मन शांत और स्थिर होता है। इन उपायों को नियमित रूप से अपनाकर हम चित्त विक्षेप को नियंत्रित कर सकते हैं और जीवन में मानसिक शांति और संतुलन प्राप्त कर सकते हैं। योग के मार्ग पर चलते हुए, जब हम अपने मन को स्थिर और शांत रखते हैं, तो हम आत्मज्ञान की ओर बढ़ते हैं और जीवन को पूरी तरह से संतुष्टिपूर्वक जी सकते हैं।
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